केकड़ी25 अक्टूबर(पब्लिक बोलेगी न्यूज़ नेटवर्क) देवगांव गेट के पास विद्यासागर मार्ग पर स्थित चंद्रप्रभु चैत्यालय मे वर्षायोग के लिए विराजित मुनि सुश्रुत सागर महाराज ने आयोजित धर्मसभा में प्रवचन करते हुए कहा कि गुरू की कृपा कब किस पर कैसे बरस जावें,कुछ पता नहीं चलता।बस जीवन में एक ही ध्येय रहे कि गुरू की छाया हमारे शीश पर होवे। गुरू के प्रति नम्रता, सरलता, सहजता का भाव होवे तो शिष्य को बिना मांगे,बिना इच्छा के भी सब कुछ मिल जाता हैं। हम गुरू की भक्ति करते हैं तो हमें गुरू के गुणों का ध्यान और समझ रहनी चाहिए, गुरू तो सद्ज्ञान और वैराग्य का भंडार है। गुरू स्पष्ट ज्ञान का धारी होता है और संसार के सभी माया जालों से विरक्त होता है। समता,माध्यस्थ,शुद्ध आत्म-भाव, वीतरागता, चारित्र,धर्म में सभी निज स्वभाव की आराधना कहलाते हैं। परमात्म तत्व का चिंतन मनन,स्मरण कर उसमें रमण करना, शुद्धात्म स्वभाव में लीन रहना ही सच्ची सम्यक आराधना है।आत्मा से प्रीति होने पर संसार की किसी भी वस्तु से प्रीति नहीं होती है। आत्मा का स्वभाव ज्ञान आनन्द है।ज्ञान आत्मा के सभी गुणों और उसके सभी प्रदेशों में व्याप्त है।
मुनिराज ने कहा आहार,निद्रा,भय,और मैथुन ये सब तो मनुष्यों के समान ही तिर्यंचो में पशुओं में भी पाये जाते हैं। मनुष्य में बस एकमात्र धर्म ही इनसे अधिक है।धर्म का कर्त्तव्य केवल निज आत्मा पर दृष्टि रखना ही होता है।धर्म से रहित कोई पदार्थ नहीं है। धर्म वस्तु के स्वभाव को कहते हैं। जीव आत्मा ज्ञान स्वरूप है,जब ज्ञान मात्र निज आत्मा स्वरूप का अनुभव करते हैं तो यह अनुभूति आत्मा के आनंद को दिलाती है और अरिहंत पद को प्राप्त कराती है। आत्म श्रद्धा तो एक डोररूपी है। जब तक आत्मश्रद्धा है तब तक उसके सुधारने का अवसर है यही अवसर आत्मा को उन्नति के मार्ग पर अग्रसर करता है। आत्म श्रद्धा डोर ही नहीं रहे तो यह स्वच्छंदता से ही संसार में चारों गतियों मे परिभ्रमण करती हुई दुःख उठाती रहेगी। जब तक हमने अपने ज्ञान भाव को नहीं देखा है तब तक चित्त अज्ञानता में राग -द्वेष रूपी संकल्प-विकल्प में रचता-पचता रहेगा। राग-द्वेषादि के संकल्प-विकल्प ही संसार है।
मुनिराज ने ध्यान कराते हुए बताया कि चंचल मन को रोककर, दोनों आंखों को बंद कर निर्मल भाव दृष्टि के द्वारा बार-बार अन्तर्दृष्टि से निरीक्षण करने से शरीर के अंदर वह परमात्मा स्वच्छ प्रकाश के समान दिखता है। एकाग्र मन से बैठकर ध्यान करने से अपने अंदर ऐसा मालूम पड़ता है कि शुद्ध स्फटिक मणि के समान,निर्मल मूर्ति के समान आत्मा दिखता है। निरन्तर ध्यान के अभ्यास से आत्म दर्शन हो सकता है,होता है। मुनिराज ने ध्यान कराते हुए कुंजवन में स्थापित परम तपस्वी सम्राट आचार्य सन्मति सागर महाराज का चिंतन और मूर्ति की आराधना कराई। मुनिराज ने परम तपस्वी सम्राट आचार्य सन्मति सागर महाराज के कई प्रसंगों को श्रद्धा भक्ति से भरे हुए,भाव- विभोर हो बताया और ऐसे तपस्वी सम्राट के गुणों का गुणगान करते हुए उन्हें बारम्बार नमस्कार किया।
दिगम्बर जैन समाज एवं वर्षायोग समिति के प्रवक्ता नरेश जैन ने बताया कि मुनि महाराज के प्रवचन से पहले आचार्य विधासागर महाराज एवं आचार्य सुनील सागर महाराज के चित्र अनावरण,दीप प्रज्ज्वलन एवं मुनि सुश्रुत सागर महाराज के पाद प्रक्षालन करने का सौभाग्य राजेन्द्र कुमार आशीष कुमार रवि कुमार सोनी परिवार को मिला।
Author: Public bolegi News Network
PK Rathi-Journalist